यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थ: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की ग्लानि-हानि यानी उसका क्षय होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं श्रीकृष्ण धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
‘कृष्ण’ शब्द अपने आपमें इतनी आध्यात्मिक व अनूठी यौगिक ऊर्जा से निर्मित है कि जीवन में जब-जब कृष्ण-तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब व्यक्ति निस्तेज होकर अपने पराभव को प्राप्त होता है। कृष्ण सिर्फ कृष्ण नही हैं या भगवत गीता सिर्फ गीता पुस्तक नही है, वह जीवन हैं जीने की कला हैं।। उसका हर श्लोक जीवन में घटित समस्यायों से निकलने के लिये रास्ता और धैर्य देता है खुशी में आपको खुशी बिना किसी राग और द्वेष से मनाने की सीख देता, समझाता हैं यदि अपनी खुशी में दूसरों को भी शामिल कर ले तो खुशियाँ बढ़ जाती हैं।।
कृष्ण तो स्वयं लीलाधारी है।कृष्ण ने जीवन के सब रंगों को स्वीकार किया कृष्ण ने प्रेम के हर रूप को स्वीकार किया, अमर प्रेम करना भला कृष्ण से बेहतर कौन समझा सकता हैं ।वह प्रेम से भागते नहीं। वही प्रेम की पराकाष्ठा यानी रासलीला को भी एक दिव्य रूप देने और संन्यास जैसे गंभीर विषय को भी समरसता देने का कार्य कर सकते हैं। इसलिए सनातन संस्कृति में कृष्ण को पूर्ण अवतार मानते हुए परमपुरुष कहा गया। कृष्ण के व्यक्तित्व में जड़-सिद्धांतों व पुरातनपंथी मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। कृष्ण सदैव कर्म के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। इसलिए दूसरों को भी कर्मफल की चिंता से मुक्ति का संदेश देते हैं।
"भारत देश और त्यौहार एक दूसरे के पूरक हैं।"
यहाँ विविधता अनेकता में एकता के साथ ही त्यौहार का ऐसा समागम हैं जो आनी वाली सदियों तक नही मिटने वाला। अभी भी स्कूलों में बच्चे राधा- कृष्ण, देवकी, यशोदा आदि बन कर जाते हैं जिस देश में बचपन से ही बच्चे अपनी संस्कृति अपने त्यौहार को मानने लगे हो उन्हे जीने लगे हो भला उस देश की संस्कृति कैसे खतरे में आ सकती हैं। जाति धर्म गरीबी अमीरी छोटा बड़ा भावनओं से परे होकर मिल जुलकर मनाइयें अपने त्यौहार, स्वयं कृष्ण के होने का अनुभव ना हो तो कहिएगा।।
राधे कृष्ण
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थ: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की ग्लानि-हानि यानी उसका क्षय होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं श्रीकृष्ण धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
‘कृष्ण’ शब्द अपने आपमें इतनी आध्यात्मिक व अनूठी यौगिक ऊर्जा से निर्मित है कि जीवन में जब-जब कृष्ण-तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब व्यक्ति निस्तेज होकर अपने पराभव को प्राप्त होता है। कृष्ण सिर्फ कृष्ण नही हैं या भगवत गीता सिर्फ गीता पुस्तक नही है, वह जीवन हैं जीने की कला हैं।। उसका हर श्लोक जीवन में घटित समस्यायों से निकलने के लिये रास्ता और धैर्य देता है खुशी में आपको खुशी बिना किसी राग और द्वेष से मनाने की सीख देता, समझाता हैं यदि अपनी खुशी में दूसरों को भी शामिल कर ले तो खुशियाँ बढ़ जाती हैं।।
कृष्ण तो स्वयं लीलाधारी है।कृष्ण ने जीवन के सब रंगों को स्वीकार किया कृष्ण ने प्रेम के हर रूप को स्वीकार किया, अमर प्रेम करना भला कृष्ण से बेहतर कौन समझा सकता हैं ।वह प्रेम से भागते नहीं। वही प्रेम की पराकाष्ठा यानी रासलीला को भी एक दिव्य रूप देने और संन्यास जैसे गंभीर विषय को भी समरसता देने का कार्य कर सकते हैं। इसलिए सनातन संस्कृति में कृष्ण को पूर्ण अवतार मानते हुए परमपुरुष कहा गया। कृष्ण के व्यक्तित्व में जड़-सिद्धांतों व पुरातनपंथी मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। कृष्ण सदैव कर्म के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। इसलिए दूसरों को भी कर्मफल की चिंता से मुक्ति का संदेश देते हैं।
"भारत देश और त्यौहार एक दूसरे के पूरक हैं।"
यहाँ विविधता अनेकता में एकता के साथ ही त्यौहार का ऐसा समागम हैं जो आनी वाली सदियों तक नही मिटने वाला। अभी भी स्कूलों में बच्चे राधा- कृष्ण, देवकी, यशोदा आदि बन कर जाते हैं जिस देश में बचपन से ही बच्चे अपनी संस्कृति अपने त्यौहार को मानने लगे हो उन्हे जीने लगे हो भला उस देश की संस्कृति कैसे खतरे में आ सकती हैं। जाति धर्म गरीबी अमीरी छोटा बड़ा भावनओं से परे होकर मिल जुलकर मनाइयें अपने त्यौहार, स्वयं कृष्ण के होने का अनुभव ना हो तो कहिएगा।।
राधे कृष्ण
बेहद ही सारगर्भित लेख है।।
ReplyDeleteनिशब्द कर दिया लेख ने आपके !!!
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