वह नायिका जिसके अदम्य सहास और जुनून की मिशाल हम सभी पढ़ते है सुनते है, उनका ही उदाहरण देते है की कैसे विपरित परिस्थितियों में जो लड़ते अजर अमर हो गई अपने राज्य की अस्मिता को बनाई रही, क्रांति कर दी या उनकी वीर गाथा के लिये शब्द भी कम है फिर भी हमारी आपकी और आने वाली पीढ़ियों की ये जिम्मेदारी बनती है, उनके इतिहास को ना मिटने दे जो भी जानकारी है लोगो तक पहुचाये, ताकि एक नारी की वीरता उसके अंदर की योग्यता को हर बार नमन किया जा सके और सीख ली जा सके।
हाँ बात हो रही सभी की मनु की यानि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जिनकी शौर्य गाथा आज भी नारी शक्ति के लिये सुनाई जाती है।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये। वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया, शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी। सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की प्राप्त हुआ पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव की मृत्यू हो गई,उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। ऐसी ही थी रानी लक्ष्मी। लक्ष्मीबाई को न सिर्फ अंग्रेजों से बल्कि भारतीय राजाओं से भी लड़ना पड़ा था.तभी कुछ एक। किताबो में ये भी जिक्र है कि बाहरी दुश्मनो से पहले उन्हे अपने घर के ही शत्रुओं से लड़ना पड़ा था।
लक्ष्मीबाई को समझ आ रहा था कि यदि झांसी का आत्मसम्मान वापस दिलावाना है तो देर-सवेर ब्रिटिश फौजों से युद्ध अवश्य होगा. लिहाजा रानी ने रियासत की सेना के साथ आम पुरुषों और महिलाओं को भी युद्ध के लिए तैयार करना शुरू कर दिया.समय के साथ कुंवर दामोदर सात वर्ष के हो गए. रानी ने उनका उपनयन संस्कार करवाने का निश्चय किया. इसके बहाने लक्ष्मीबाई झांसी के सभी मित्र राजाओं, दीवानों और नवाबों को बुलाना चाहती थीं ताकि आगे की रणनीति तय की जा सके. इस कार्यक्रम में नाना साहेब, राव साहेब, दिल्ली के सुल्तान बहादुर शाह और अवध के नवाब को आमंत्रित किया गया. बैठक में हिंदू और मुसलमान सैनिकों की फौज के प्रति नाराज़गी का जिक्र प्रमुखता से हुआ.रानी को ना सिर्फ ब्रिटिश राजाओ से बल्कि भारत देश के कई राजाओ की नराजगी का भी सामना करना पड़ा। सर रॉबर्ट हैमिल्टन का मानना था कि लक्ष्मीबाई बेहद मर्यादित, विनीत और समझदार महिला थीं जिनमें अच्छा शासक बनने की सारी योग्यताएं थीं. उनके सम्मान में लॉर्ड कंबरलैंड ने लिखा था, ‘लक्ष्मीबाई असाधारण बहादुरी, विद्वता और दृढ़ता की धनी हैं. वह अपने अधीन लोगों के लिए बेहद उदार हैं. ये सारे गुण सभी विद्रोही नेताओं में उन्हें सबसे ज्यादा खतरनाक बनाते हैं. थर्ड बांबे लाइट कैवलरी के अफ़सर कॉर्नेट कॉम्ब ने लक्ष्मीबाई की बहादुरी और हौसले को देखते हुए लिखा था, ‘वो बहुत ही अद्भुत और बहादुर महिला थी. यह हमारी खुशकिस्मती थी कि उसके पास उसी के जैसे आदमी नहीं थे.’
जन्म: 19 नवंबर 1828, वाराणसी
मृत्यु: 18 जून 1858, ग्वालियर
पूर्ण नाम: मणिकर्णिका
पालक: मोरोपन्त तांबे, भागीरथी सपरे
हाँ बात हो रही सभी की मनु की यानि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जिनकी शौर्य गाथा आज भी नारी शक्ति के लिये सुनाई जाती है।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये। वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया, शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी। सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की प्राप्त हुआ पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव की मृत्यू हो गई,उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। ऐसी ही थी रानी लक्ष्मी। लक्ष्मीबाई को न सिर्फ अंग्रेजों से बल्कि भारतीय राजाओं से भी लड़ना पड़ा था.तभी कुछ एक। किताबो में ये भी जिक्र है कि बाहरी दुश्मनो से पहले उन्हे अपने घर के ही शत्रुओं से लड़ना पड़ा था।
लक्ष्मीबाई को समझ आ रहा था कि यदि झांसी का आत्मसम्मान वापस दिलावाना है तो देर-सवेर ब्रिटिश फौजों से युद्ध अवश्य होगा. लिहाजा रानी ने रियासत की सेना के साथ आम पुरुषों और महिलाओं को भी युद्ध के लिए तैयार करना शुरू कर दिया.समय के साथ कुंवर दामोदर सात वर्ष के हो गए. रानी ने उनका उपनयन संस्कार करवाने का निश्चय किया. इसके बहाने लक्ष्मीबाई झांसी के सभी मित्र राजाओं, दीवानों और नवाबों को बुलाना चाहती थीं ताकि आगे की रणनीति तय की जा सके. इस कार्यक्रम में नाना साहेब, राव साहेब, दिल्ली के सुल्तान बहादुर शाह और अवध के नवाब को आमंत्रित किया गया. बैठक में हिंदू और मुसलमान सैनिकों की फौज के प्रति नाराज़गी का जिक्र प्रमुखता से हुआ.रानी को ना सिर्फ ब्रिटिश राजाओ से बल्कि भारत देश के कई राजाओ की नराजगी का भी सामना करना पड़ा। सर रॉबर्ट हैमिल्टन का मानना था कि लक्ष्मीबाई बेहद मर्यादित, विनीत और समझदार महिला थीं जिनमें अच्छा शासक बनने की सारी योग्यताएं थीं. उनके सम्मान में लॉर्ड कंबरलैंड ने लिखा था, ‘लक्ष्मीबाई असाधारण बहादुरी, विद्वता और दृढ़ता की धनी हैं. वह अपने अधीन लोगों के लिए बेहद उदार हैं. ये सारे गुण सभी विद्रोही नेताओं में उन्हें सबसे ज्यादा खतरनाक बनाते हैं. थर्ड बांबे लाइट कैवलरी के अफ़सर कॉर्नेट कॉम्ब ने लक्ष्मीबाई की बहादुरी और हौसले को देखते हुए लिखा था, ‘वो बहुत ही अद्भुत और बहादुर महिला थी. यह हमारी खुशकिस्मती थी कि उसके पास उसी के जैसे आदमी नहीं थे.’
जन्म: 19 नवंबर 1828, वाराणसी
मृत्यु: 18 जून 1858, ग्वालियर
पूर्ण नाम: मणिकर्णिका
पालक: मोरोपन्त तांबे, भागीरथी सपरे
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